हेमंत सोरेन की चुनौती — मोदी से मांगें ताज़ा जनादेश, लोकतंत्र पर विश्वास बरकरार
रांची / पटना, 2 सितंबर 2025: झारखंड के मुख्यमंत्री और जद (जमुई डेमोक्रेटिक मोर्चा) के अध्यक्ष हेमंत सोरेन ने पटना में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी—यदि मतदाता सूची में व्यापक त्रुटियाँ हैं, तो वे देशभर पुन: चुनाव कराने के लिए इस्तीफा दें।
सख़्त आरोप: केंद्र पर वोट चोरी का आरोप और एजेंसियों का दुरुपयोग
सोरेन ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय जनाधार को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कहा:
“वे (प्रधानमंत्री) उसी मतदाता सूची पर शासन कर रहे हैं जिसे चुनाव आयोग ने प्रकाशित किया था। मैं उन्हें चुनौती देता हूँ कि वे इस्तीफा दें और देश भर में व्यापक मतदाता सूची पुनरीक्षण कराएं और वास्तविकता का सामना करें।”
उन्होंने कहा कि यह यात्रा—जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, और राजद नेता तेजस्वी यादव शामिल थे—मतदान की पवित्रता की रक्षा के लिए थी।
सोरेन ने विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की आलोचना की। उनका कहना था कि यह प्रक्रिया वोटरों के अधिकार को छीने जाने का प्रयास है—सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे विपक्ष इसी को लोकतंत्र के खिलाफ एक बड़ा कदम मानता है। उन्होंने चेतावनी दी कि 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर एक निर्णायक पल बन सकता है, जहाँ लोकतंत्र का वास्तविक सिरा तय होगा।
उन्होंने आरोप लगाया कि 2014 के बाद से बीजेपी द्वारा वोट चोरी की प्रक्रिया चल रही है और जबरदस्त हेराफेरी, ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ जैसे तरीके अपनाकर कई राज्य सरकारों को गिराया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि केंद्रीय एजेंसियाँ जैसे ED और CBI केवल विपक्ष को दबाने के उपकरण बन गए हैं।
संवैधानिक चिंताएँ और न्यायिक आवाज़
इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी ने कहा कि लोकतंत्र खतरे में है यदि वर्तमान निर्वाचन प्रक्रियाओं में सुधार नहीं किया गया। उन्होंने चुने हुए निर्वाचन आयुधों और मतदाता सूची की पारदर्शिता पर सवाल उठाए, और कहा:
“अगर मौजूदा प्रक्रिया जारी रही, तो लोकतंत्र की नींव कमजोर हो सकती है।”
उन्होंने स्वतंत्र समीक्षा, ईमानदार निर्वाचन सूची और चुनाव आयोग की जवाबदेही पर जोर दिया—यह सब लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
2025 का विवादग्रस्त चुनावी माहौल
वर्तमान में SIR को कई जगह विपक्षी दलों द्वारा “मत विभाजन की साजिश” कहा जा रहा है, जो संवैधानिक लोकतंत्र को कमजोर कर सकती है 1।
पिछले दिनों जब केंद्र सरकार ने 130वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया, तो सोरेन ने इसे चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करार दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग बीजेपी के दबाव में काम कर रहा है, खासकर बिहार जैसे राज्यों में मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर लोगों को हटाना इसके प्रमाण हैं 2।
राजनीतिक रणनीति और सांघातिक प्रभाव
- आठ साल से चल रहा नैरेटिव: 2014 से सुनी गई कमजोर मतदाता सूची जैसे आरोप अब मुस्लिम विस्तार को मूल स्तर पर स्थापित कर रहे हैं। यह स्थिति विपक्ष को नए नैरेटिव के साथ चुनाव में खड़ा कर रही है।
- संजालवाद और डिजिटल फैलाव: सोशल मीडिया पर #VoterRights और #DemocracyAtStake ट्रेंड कर रहे हैं, जिससे जनमतविदों को तेज संदेश मिल रहा है।
- संवैधानिक दायित्व: यदि डीम ने ‘प्रक्रियात्मक जवाबदेही’ की प्रतिज्ञा नहीं निभाई, तो संस्थागत लोकतंत्र का मूल्य घटता है।
- चुनावी प्रभाव: बिहार के चुनाव परिणाम केवल एक राज्य का परिणाम नहीं, पूरे राष्ट्रीय समीकरण को प्रभावित कर सकते हैं।
इतिहास से वर्तमान तक—झारखंड की राजनीतिक पृष्ठभूमि
हेमंत सोरेन ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान जमाई है, सिर्फ वर्तमान राजनीतिक संघर्ष के कारण नहीं, बल्कि स्थानीय संघर्ष और जनाधिकार की जमीनी पृष्ठभूमि के चलते 3। उन्हें जेल में बंद किया गया, लेकिन जमानत मिलने के बाद वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस बार उनकी सरकार JMM-कांग्रेस-RJD जैसी सहयोग से गठित ‘महागठबंधन’ का नेतृत्व कर रही है 4।
ऐसे में उनका यह बयान केवल राजनीतिक भाषण नहीं—बल्कि उस प्रणाली की रीढ़ पर चोट है जो चुनाव की प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाए रखने के इर्द-गिर्द इकट्ठा की गई है।
संभावित आगे की राह
अब सवाल यह है कि इस चुनौती का क्रम क्या होगा:
- क्या मोदी सरकार मतदाता सूची की व्यापक समीक्षा करने पर मुहर लगाएगी?
- क्या निर्वाचन आयोग इस बयान के जवाब में स्वतन्त्र जांच प्रक्रिया लागू करेगा?
- यदि बिहार चुनाव में कोई निर्णायक बदलाव हुआ—वोटिंग प्रतिशत या परिणामों में फर्क—तो क्या उसे पुनः चुनाव या अदालत द्वारा निर्णायक समीक्षा की ओर मजबूर होना पड़ेगा?
- और, सबसे महत्वपूर्ण—क्या मतदान का अधिकार एक संवैधानिक सिद्धांत की रक्षा बनेगा या राजनीतिक युद्ध का साधन?
हेमंत सोरेन की चुनौती—सिर्फ एक राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि लोकतंत्र के आधार पर प्रश्न खड़ा करने की एक संवैधानिक और नैतिक मांग है। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली तब तक जीवित और पुख्ता बनी रहेगी जब वोट मतदाता का सुरक्षित अधिकार रहेगा, सत्ता पक्ष मजबूर होगा कि वह पारदर्शिता बनाए और चुनाव आयोग का निर्दोष काम जारी रहेगा।
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